ढोंग
खुद पे हस लेता हूँ,
थोड़ी मौज ले लेता हूँ,
आज के दिन को अगर,
मैं थोड़ा सा जी लेता हूँ,
तो वो मासूमियत से पूछती है,
कल जो तुम थे,
क्या वो फिर ढोंग था क्या?
मुस्कुराकर उसको मै,
जी भर के देख लेता हूँ,
सवाल के बदले,
एक सवाल पूछ लेता हूँ,
भोर के धूप की रंगत,
संध्या की तपन से अलग थी,
तो क्या वो फिर ढोंग था क्या?
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