मुनिया की दादी


कुछ महसूस हुआ, और उसके बारे में लिख़ने गयी तो उस जज़्बात के लिए शब्द ही नहीं मिले | जीवन में कितनी सारी ऐसी बातें, ऐसे इत्तेफ़ाक़ होते हैं जिन्हे हम अक्सर याद कर लिया करते हैं | उन यादों में हम एक बार फिर से वो बातें, वो इत्तेफ़ाक़ जीने की कोशिश करते हैं | पर अगर अचानक से कोई दृश्य आपको अपनी यादों के उस कोने में धकेल दे जहाँ आप पहले कभी नहीं गए तो कैसा महसूस होगा? मानो जैसे वो इत्तेफ़ाक़, वो याद आपसे रूठ के शिकायत कर रही हो |

ऐसे ही एक छुट्टी की सुबह अपनी बालकनी में बैठे हुए मेरी नज़र जब इस बालकनी पर गयी तो मेरी आँखों के सामने दादी की झलक आ गयी | वो थी तो मेरे पापा की दादी पर मै भी उनको दादी ही कहती थी | उन्होंने मुझे स्कूल जाते हुए भी नहीं देखा | वो उससे पहले ही चली गयीं थी |

उनके कमरे में एक ख़ास खुशबू हुआ करती थी | वो खुशबू याद है मुझे | दादी चुटकी बजा के मुझे कुछ सुनाया करती थी | उनकी चुटकी याद है मुझे | उस समय मै सोचती थी कि जादू है, कि दो उंगलियों से कैसे आ जाती है ये आवाज़ | जब मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने मुझे भी चुटकी बजाना सिखा दिया | फिर हम दोनों बाहर धूप में बैठ के साथ में चुटकी बजाया करते थे | मेरे बजाने पर वो खुश होती | उनकी हंसी याद है मुझे | रात में खाने के बाद पापा रोज़ उनसे पूछते थे, "का हो तरकारी कैसी बनी है?" और हर रोज़ हमे एक नया जवाब मिलता | रात में उनके साथ सोते हुए जब मै बुरे सपनों से डर जाया करती थी तो वो मुझे हनुमान चालीसा सुनाती |

दादी मुझे मुनिया कह के बुलाती थी | उनके जाने के बाद मुझे किसी ने कभी इस नाम से नहीं पुकारा | मुनिया सुनते ही मुझे उनकी चुटकी की आवाज़ और तरकारी पर उनकी हर रोज़ की टिप्पड़ी याद आ जाती है | काश वो होती और मैं उन्हें बता पाती कि मुझे मुनिया नाम कितना पसंद है | 

Comments

Popular posts from this blog

The Morning Visitor